
~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेषोऽस्ति न प्रियः। ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।२९।। अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्। साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।२२।। येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।२३।। भज्छन् नित्य, अनन्य भावसँग जो मैलाई हे अर्जुन

२०७५ सालका लागि पद्मश्री साहित्य पुरस्कार रमेश सायनलाई उनको कृति ‘छुटेका अनुहार’लाई प्रदान गरिने भएको छ। त्यस्तै पद्मश्री साधना सम्मान पूराविद्, इतिहासविद् तथा संस्कृतज्ञ डा. महेशराज पन्तलाई प्रदान गरिने भएको

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ पितामहस्य जगतो माता धाता पितामहः। वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।।१७।। गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।१८।। तपाम्यहमहं वर्ष निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय। उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मषु।।९।। मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।१०।। वास्ता छैन मलाई कर्म फलको आसक्ति नै लिन्नँ

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ अथ नवमोऽध्यायः श्रीभगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञासहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१।। राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।२।। आज्ञा भो अनि कृष्णबाट सुन हे

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ परस्तमात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः। यः स सर्वेषु भुतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।२०।। अव्यक्तोऽक्षर इत्यक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।२१।। जो यो तत्त्व छ व्यक्तदेखि

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।१२।। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।। रोकी इन्द्रियवर्ग औ हृदयमा खैँचेर राखी

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयम्।।८।। यस्मा यो नियम् कि ईश्वर-स्मरण् अभ्यासरूप् योगमा जो मानिस् छ निपुण् र अन्ततिर मन् जाँदैन जस्को यहाँ।

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ अथाष्टमोऽध्यायः अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।१।। अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन। प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसिनियतात्मभिः।।२।। सोध्छन् अर्जुन ब्रह्म,

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः। परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।२४।। नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः। मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।।२५।। अत्युत्त्म अविकारी रूप नबुझी मेरो कति मूर्खले भन्छन् रूप लिई

~स्व. पण्डित जीवनाथ उपाध्याय अधिकारी~ चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।१६।। तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।१७।। अर्थेच्छु अनि आर्त, ज्ञानी